राजअनीति
राजनीति नहीं
राजअनीति की दूकान में,
जिसकी जेब में हैं वोट
उसी की है पूछ
सब कुछ हो सकता है
लंगड़ा घोडा भी आ सकता है पहला.
जो जितना बड़ा है कुकर्मी
उतना ही बड़ा नेता (?) अनेता...
जनता, बेवकूफ निपट निर्बुध्धि
उसका ही पीसा जाता है आटा
उसका ही पेरा जाता है तेल
और खाने को उसीके लिए
आधा पेट बिना नमक का जौला.
कागजों की है अजब माया
केवल कागजों का ही मुंह काला कर
समेटे जाते हैं कागज़ के हरे-हरे नोट
कागजों में ही बन जाते हैं
स्कूल-अस्पताल-रोड
कागज में ही चल जाती है रेल
बस चलाने वालों के लिए सब कुछ विस्तृत,
खुला-खुला...
हर ओर है असर
क्या इलाज, क्या पढ़ाई, क्या खाना-पीना
सब बना दिए हैं खेल
बस खेल ही नहीं रह गए है खेल
खेलों में हो रहे खेल
क्या ओलम्पिक-क्या हाकी-क्या क्रिकेट...
कर दी है देश की टीम की हालत
मुझ सी
हर ओर खुशी-सबकी आँखों की किरकिरी
असल इम्तिहान में फेल...
हाथी के से दांत..
बढ़ाएंगे दुश्मनी
मुंह से इकट्ठा होने को कहेंगे.
न्याय, लोकतंत्र, अखबार भी
दुर्भाग्य!
बनने लगे हैं इनकी फुटबौल
मर रहे है लोग
मारे-काटे जा रहे हैं
जल रहे हैं गरीबों के घरोंदे
पहुंचेगी आंच क्या कभी इन तक
होंगे किसी दिन देवता सुफल
तपेंगे क्या कभी इनके सोने के महल
जागेंगे क्या लोग
भरेंगे क्या इनके कुकर्मों के घड़े...?
भरेंगे क्या इनके कुकर्मों के घड़े...?
......नवीन जोशी
(मेरी कुमाउनी कविता 'राजअनीति' का भावानुवाद)
शनिवार, ६ फरवरी २०१०
भ्रम
दशहरे के दिन,
बना, सजा रखे हैं सभी ने
अपने अपने रावण,
..और अब आग लगा रहे हैं...
किसी का रावण कपड़ों का,
किसी का कागजों का..
किसी में ढांचा लकड़ियों का
और किसी में लोहे का भी
कोई रावण भस्म हो जा रहा पल भर में
कोई कठोर
आँख दिखा रहा
राजी नहीं हो रहा जलने को
कुछ भी हो, वह भी जल्द हो जायेगा राख,
उसके भीतर रखे बम- पटाखे
कुछ देर भड़भड़ाएंगे और फिर चुप हो जायेंगे.
पर होगी इस बीच एक ख़ास चीज
जब जल रहा होगा रावण,
उससे उठने वाली चिंगारियों से
बन जायेंगे रक्तबीज.
भ्रम होगा, जल गया है रावण
पर वो रक्तबीज, बाहर आ
दुनियां में पाले-दुलारे जायेंगे,
फिर अगले साल के दशहरे में
और भी बड़े, ऊँचे
रावण सजेंगे
नहीं मरेगा यों रावण, न कुम्भकरण,
न खर-दूषण
खाली बढेगा प्रदूषण..
जला कर या उससे डर भाग कर ..
उसके सामने होना पड़ेगा खड़ा
करना पड़ेगा मुकाबला
लडनी पड़ेगी लड़ाई
घर से, भीतर से, खुद से भी,
मेरी मानो
न बनाओ, न जलाओ मरे रावण को
जब बड़े-बड़े रावण हैं जिन्दा दुनियां में
कर सको, तो रखो उन्हें चौराहों पर
रोज जूते मारो, काला करो मुंह
और हिम्मत है तो
उन्हें जलाओ.
खाली
भ्रम को जला कर क्या फायदा.....
.....नवीन जोशी
(मेरी कुमाउनी कविता 'भैम' का भावानुवाद)
सोमवार, १८ जनवरी २०१०
ठण्ड
बर्फवारी के दिनों मैं भी
कहाँ रह गयी है अब
पहले जैसी ठण्ड ,
अभ्यस्त हो गए हैं लोग
बारहमासी
ठन्डे रिश्ते नातों की
ठण्ड में,
बिल्ली की तरह
चूल्हे की
बुझी राख में
अकेले दुबक कर भी,
सिमटे हुए हैं लोग
अकड़ गए हैं उनके जज्बात
घुड़क रहे हैं जिस-तिस से
पागल हुए कुत्तों की तरह,
किस भाग्यवान को मिल रहा है अब-
मां का लाड़
कौन सह रहा
पिता की डांट
कौन मान रहा
सयानों की सलाह,
क्या भाई-क्या बहन
क्या बेटा-क्या बेटी
क्या पति-क्या पत्नी
क्या बड़ा-क्या छोटा भाई
जहाँ देखो वहीं दिखावा
वहीँ ठण्ड
बस
बारहमासी ठण्ड.
......नवीन जोशी
(मेरी कुमाउनी कविता 'अरड' का भावानुवाद)
कहाँ रह गयी है अब
पहले जैसी ठण्ड ,
अभ्यस्त हो गए हैं लोग
बारहमासी
ठन्डे रिश्ते नातों की
ठण्ड में,
बिल्ली की तरह
चूल्हे की
बुझी राख में
अकेले दुबक कर भी,
सिमटे हुए हैं लोग
अकड़ गए हैं उनके जज्बात
घुड़क रहे हैं जिस-तिस से
पागल हुए कुत्तों की तरह,
किस भाग्यवान को मिल रहा है अब-
मां का लाड़
कौन सह रहा
पिता की डांट
कौन मान रहा
सयानों की सलाह,
क्या भाई-क्या बहन
क्या बेटा-क्या बेटी
क्या पति-क्या पत्नी
क्या बड़ा-क्या छोटा भाई
जहाँ देखो वहीं दिखावा
वहीँ ठण्ड
बस
बारहमासी ठण्ड.
......नवीन जोशी
(मेरी कुमाउनी कविता 'अरड' का भावानुवाद)
रविवार, १० जनवरी २०१०
हमारे गाँव में
हमारे गाँव में, अब पहले सी बात ही नहीं,
कि जैसे पेड़ का, जड़ों से कोई वास्ता ही नहीं.
चमन में उड़ने का शौक तो सबको ही है,
पर अपने परों को कोई तोलता ही नहीं.
कहाँ से आयेगी नई हवा, और कैसे आयेगी,
अपने घरों के झरोखे कोई खोलता ही नहीं.
वही एक मेरे दिल में बैठा हुआ है,
वह जिससे मैं कभी ठीक से मिला ही नहीं.
कैसे कहूँ मां, मैं सजाऊंगा तुम्हें,
मेरी आशाओं का बुरांश कभी खिला ही नहीं.
आ गया हूँ जीवन के उस आख़िरी पड़ाव पर
जहाँ सीढियां तो हैं मगर पैर ही नहीं.
'आकाश छुवैंगे' 'आकाश छुवैंगे' तो सभी कह रहे
पर लहू मैं किसी के वैसी गर्मी ही नहीं.
जो नदी बहा रही है, वही क्या पार लगाएगी हमें,
थोडा सा भी कोई डूबते का तिनका ही नहीं.
होगा उजाला और एक दिन जरूर ही होगा,
मैं जानता हूँ, ऐसी कभी न खत्म होने वाली, कोई रात ही नहीं.
.....नवीन जोशी
(मेरी कुमाउनी कविता 'हमर गौं में ' का भावानुवाद)
मुझे भरोसा है
अँधेरा है अभी, मैं मान भी लूँ तुम्हारी बात
पर फिर होगा उजाला, मुझे भरोसा है.
खाली 'देखा-देखंगे' कहने वाले, दिखायेंगे कुछ कर के
बकवास छोड़ होंगे कार्य को उद्यत, मुझे भरोसा है.
काले कारनामे-सफ़ेद वस्त्र, स्वांग रच जो बने हैं प्रधान
होगा उनका मुंह काला, मुझे भरोसा है.
दूसरों के घर जलाने वाले, समझेंगे सबको अपना
संभालेंगे देश को, मुझे भरोसा है.
आंखें बंद कर भागने वाले, भागेंगे नहीं अंधी दौड़ में
देखेंगे ऊपर-नीचे हर तरफ, मुझे भरोसा है.
जन्मान्धों की भी खुलती हैं आखें, कभी तो टूटती है नींद
बदले जाते हैं चोले, आते हैं मेले, मुझे भरोसा है.
दिन में ही घिर सकता है अँधेरा, हो सकती है रात भी
हाथों में थामी जायेंगी मशालें, मुझे भरोसा है.
लगा है कोहरा झूठ का, सच की आँखों में पट्टा
बरसेंगे शीघ्र बादल, मुझे भरोसा है.
कहाँ जायेगी हंसी, और क्यों, सामने ही आ मिलेगी
जाना नहीं पड़ेगा तलाशने, मुझे भरोसा है.
....नवीन जोशी
(मेरी कुमाउनी कविता 'भरौष' का भावानुवाद )
शनिवार, ९ जनवरी २०१०
झूठ-सच
कौन मानेगा मेरी सच
जब मैं कहूँगा-
सच होता है कई प्रकार का.
सोते हुए पीठ के नीचे धरती
खड़े होते हुए पांवों के नीचे धरती
और चन्द्रमा में जाकर हो सकता है
सर के ऊपर हो धरती,
तो हुआ न सच कई प्रकार का ?
सोते हुए का सच अलग, जागे हुए का सच अलग
बैठे, खड़े व 'उठे' हुए के सच भी अलग अलग
आँखों देखा, कानों सुना
हाथों से छुवा, जीभ से चखा,
तोड़ा-मरोड़ा सच भी अलग
फिर पुराना सच-नयां सच
झूठा सच-सच्चा झूठ
और एक वह सच भी
जो पापा ने झूठ सिखाया था
"सच पुण्य और झूठ बोलना पाप"
सच बोलना तो आजकल
हो गया है सबसे बड़ा पाप
हो रहा है नीलाम हर चौराहे में
द्रौपदी की चीर की तरह
ठहर नहीं पा रहा
झूठ की ताकत के समक्ष
कौन मानेगा मेरी सच
जब में कहूँगा-
भगवान भी होते हैं
दो प्रकार के
एक वे
जो हमें पैदा करते हैं,
और दूसरे वो
जिन्हें हम पैदा करते हैं
उनकी मूर्ति बना
कोइ देख रहा हो तो
जोर जोर से
पहले सर और फिर
पूरे शरीर को भी झूमाकर
जय-जय कर नाचते भी हैं,
खुद भी देवता बन जाते है,
बड़े-बड़े उपदेश देते हैं
जो जितना चढ़ावा चढ़ाये
उतना ही प्रसाद देते हैं,
वी. आई. पी. आ जायें तो
उन्हें अन्दर लाने
खुद मंदिर से बाहर भी निकल आते हैं.
परेशान लोगों के दुःख हरने के बदले
मुर्गियां-बकरियां मांगते हैं,
उनके नाम पर राजनीति करते हैं...दुकान चलाते हैं....
......नवीन जोशी
(मेरी कुमाउनी कविता 'झुठी-सांचि' का भावानुवाद )
शुक्रवार, ८ जनवरी २०१०
कौन हैं हम ?
स्कूल जाने वाले
विद्यार्थी नहीं,
शिक्षक नहीं,
क्या ट्यूटर ?
अस्पताल जाने वाले
चिकित्सक नहीं,
शल्यक नहीं,
क्या चीड़-फाड़ करने वाले
कसाई ?
घर-सड़क बनाने वाले
इंजीनियर नहीं,
ठेकेदार नहीं,
सीमेंट-सरिया चुराने वाले
चोर- लुटेरे ?
राजनीति करने वाले
जनता के सेवक नहीं,
विकास लाने वाले नेता नहीं,
देश बेचने वाले
दलाल ?
कोर्ट- कचहरी जाने वाले
वकील नहीं,
जज नहीं,
अन्याय करने वालों को बचाने वाले
सीधे साधे लोगों को लूटने- मारने वाले...
गुंडे ?
समाज में रहने वाले
किसी के पड़ोसी नहीं,
किसी के ईष्ट-मित्र नहीं,
सिर्फ पैसों के
गोबरी कीड़े ?
लक्ष्मी के पुजारी नहीं,
सवारी...उल्लू ?
.... नवीन जोशी
(मेरी कुमाउनी कविता 'को छां हम' का भावानुवाद. )
परिवार
वाह ! वे दिन
जब मैं भी था पूरा मनुष्य सा...
दसों दिशाओं को देखने वाली आखें
हाथी सी जंघाएँ
बृषभ से कंधे
मजबूत सुदर्शन शरीर...
कान की जगह कान
हाथ की जगह हाथ
पांवों की जगह पाँव
और मस्तिस्क की जगह मस्तिस्क.
और एक ये दिन
जब मेरे ही हाथ, घूंसे ताने है मेरे ही शरीर पर
पाँव लात मार रहे हैं, मस्तिस्क को
कान नहीं सुन रहे, मुंह के बोले शब्द
दिमांग नहीं समझ रहा, आँखों के देखे दृश्य
अँगुलियों ने पकड़ बंद कर ली है नाक,
सूंघने नहीं दे रहीं
दांतों ने कैद कर ली है जीभ,
चखने नहीं दे रहे
सब अलग अलग हो रहे हैं
शरीर से गिर रहे हैं, एक एक कर
और बनाने लगे हैं अपने अलग अलग शरीर...
हाथों, पावों...
यहाँ तक की शिर के बालों ने भी
गिर कर बना लिए हैं, अपने अलग शरीर
और रख लिए हैं, अलग अलग,
बाज़ार मैं बेचने को रखे मांस के हिस्सों की तरह....
अब पावों के पास आखें नहीं है
आँखों के पास मस्तिस्क नहीं है
और मस्तिस्क के पास हाथ नहीं..
किसी के पास अपने अलावा कुछ नहीं....
मैं, 'परिवार' कहते थे जिसे
टुकड़े टुकड़े हो गया हूँ.
मैं देख रहा हूँ
वे परेशान हो गए हैं, आ रहे हैं वापस
मैं हाथ पसारे बैठा हूँ
क्या मैं सपना देख रहा हूँ?
.....नवीन जोशी
(मेरी कुमाउनी कविता 'कुन्ब' का भावानुवाद)
गुरुवार, १७ दिसम्बर २०मंगलवार, १५ दिसम्बर २००९
जीवन और मौत
दोनों हैं प्रेमी, रहते हैं सदियों तलक एक साथ,
तभी तो मनुष्य पैदा होते समय रोता हुआ आता है,
अपनी प्रेमिका 'मौत' से बिछुड़ने के दर्द के साथ........
और जीवन में उसे मिल जाती है माया,
जुड़वाँ बहन मौत की,
बिल्कुल उसी की तरह दिखने वाली।
वह माया को ही मौत समझ,
उसके ही प्रेम में कुर्बान कर देता है
जिन्दगी........
और उधर जीवन के बिना
मर मर कर जी रही मौत,
हर रोज़ रात को छुप छुप कर आती है
जीवन के पास,
दोनों मिलते हैं हर रात,
घूमते हैं बाहों में बाहें डाले,
न जाने किस किस लोक में,
जहाँ न अकेले जीवन जा सकता है, न मौत,
लोग सोचते हैं, हम सपने देख रहे हैं,
पर असल में
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" शनिवार 17 सितम्बर 2016 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!
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